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पतिता

जिश्म को बेंच कर,
वह पालती उदर;
पतिता कहाती वह,
पर क्या वह पतिता ही है?
क्यों,कैसे पतित हुयी,
सहयोग तुम्हारा भी तो है!
बनाने को पतिता,
तुमने ही विवश किया;
फिर उसको यह नाम दिया ,


चंद चंडी के टुकड़े,
बनाते मिटाते 
उसके अस्तित्व को 
तुम्हारी भूख में 
वह सेंकती रोटियां;
भूख मिटाने को
वह लुटाती नारीत्व  
नारी बचाने को/

वासना भरी आँखें ही 
हर तरफ दिखीं,
घर - परिवार
और समाज 
सब बहसी लगें
कहाँ जाय 
किस-किस से बचे
हर तरफ दरिंदगी दिखे!

पर करती जो
समाज को पतित;
क्या वो पतिता ही
कहलाती हैं?
आज भी लज्जित होता
 समाज उनसे,
फिरभी सभ्यता की भीड़ में 
वो सभी ही 
कही जाती हैं!!


टिप्पणियाँ

  1. सार्थकता लिये सशक्‍त अभिव्‍यक्ति ।

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  2. सुंदर भाव। पढ़कर मन त्रिप्त हो गया कभी मेरे ब्लौग http://www.kuldeepkikavita.blogspot.com पर भीआना अच्छा लगेगा।

    जवाब देंहटाएं
  3. सार्थक रचना ....सोचने को विवश करती है

    जवाब देंहटाएं
  4. शौक से तो कौई शरीर नही बेचता । पेट की आग अपनी और बच्चों की बुझाने के लिये चाहिये चांदी के चंद सिक्के जो खरीद सके रोटी ।
    कडवा सच कहती रचना ।

    जवाब देंहटाएं

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