जिश्म को बेंच कर,
वह पालती उदर;
पतिता कहाती वह,
पर क्या वह पतिता ही है?
क्यों,कैसे पतित हुयी,
सहयोग तुम्हारा भी तो है!
बनाने को पतिता,
तुमने ही विवश किया;
फिर उसको यह नाम दिया ,
चंद चंडी के टुकड़े,
बनाते मिटाते
उसके अस्तित्व को
तुम्हारी भूख में
वह सेंकती रोटियां;
भूख मिटाने को
वह लुटाती नारीत्व
नारी बचाने को/
वासना भरी आँखें ही
हर तरफ दिखीं,
घर - परिवार
और समाज
सब बहसी लगें
कहाँ जाय
किस-किस से बचे
हर तरफ दरिंदगी दिखे!
पर करती जो
समाज को पतित;
क्या वो पतिता ही
कहलाती हैं?
आज भी लज्जित होता
समाज उनसे,
फिरभी सभ्यता की भीड़ में
वो सभी ही
कही जाती हैं!!
Bahut sundar bhao purna abhivyakti.
जवाब देंहटाएंhttp:kpk-vichar.blogspot.in
http:vichar-anubhti.blogspot.in
भावनाओं का उत्कृष्ट प्रस्तुतीकरण,,,,,,
जवाब देंहटाएंRECECNT POST: हम देख न सके,,,
सार्थक प्रश्न करती अच्छी रचना
जवाब देंहटाएंसार्थकता लिये सशक्त अभिव्यक्ति ।
जवाब देंहटाएं्सच पर प्रहार करती रचना
जवाब देंहटाएंसुंदर भाव। पढ़कर मन त्रिप्त हो गया कभी मेरे ब्लौग http://www.kuldeepkikavita.blogspot.com पर भीआना अच्छा लगेगा।
जवाब देंहटाएंसार्थक बात कहती भावपूर्ण रचना..
जवाब देंहटाएंसार्थक रचना ....सोचने को विवश करती है
जवाब देंहटाएंशौक से तो कौई शरीर नही बेचता । पेट की आग अपनी और बच्चों की बुझाने के लिये चाहिये चांदी के चंद सिक्के जो खरीद सके रोटी ।
जवाब देंहटाएंकडवा सच कहती रचना ।