हे मेरे मानव प्रियवर,
मैं भी मानव हूँ;
तुम करते आशाएं,
मिले न मुझसे निराशाएं;
करता मैं भी प्रयास पर,
इस जग में मैं भी अभिनव हूँ;
हे मेरे मानव प्रियवर,
मैं भी मानव हूँ;
तुम चाहते
मेरे कर्मों में न त्रुटि हो,
कैसे करूं कर्म,
जिससे तुम्हें भी संतुष्टि हो;
फिर भी जीवन में कर्मरत हूँ,
तेरा ही तो बांधव हूँ;
हे मेरे मानव प्रियवर,
मैं भी मानव हूँ;
चल रहा द्वंद्व मेरे भी
अंतर भंवर में,
दया,द्वेष,प्रेम, हर्ष है ,
मेरे भी उर में;
नहीं मैं सर्वग्य,
मैं भी अतिगव हूँ;
हे मेरे मानव प्रियवर,
मैं भी मानव हूँ;
तुम चाहते
जीवन के झंझावातों में सहारा दूं;
लहरों की थपेड़ों में,
डगमग होती नाव को किनारा दूं;
तुम समझते वट विटप,
मै भी पल्लव हूँ;
हे मेरे मानव प्रियवर,
मैं भी मानव हूँ;
माया प्रपंच से
मैं भी व्योमोहित हूँ;
समर्पित हूँ पूर्ण
पर कामना से लिप्त हूँ;
नहीं मैं अमर्त्य
मैं भी अवयव हूँ;
हे मेरे मानव प्रियवर,
मैं भी मानव हूँ;
संघर्ष तो
जीवन का आलम्बन है'
सहिष्णु होना तो
मानव का स्वालम्बन है;
महाकाल से
मैं भी अतिभव हूँ
हे मेरे मानव प्रियवर,
मैं भी मानव हूँ!
?
मानवता जिसका धर्म हो, कर्म हो वही मानव है ... सार्थक रचना...आभार
जवाब देंहटाएंप्रभावी प्रस्तुति |
जवाब देंहटाएंशुभकामनायें आदरणीय ||
behad utkrust Rachna ..Badhai
जवाब देंहटाएंसंघर्ष तो
जीवन का आलम्बन है'
सहिष्णु होना तो
मानव का स्वालम्बन है;
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