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भिक्षुक

लड़खड़ाते   कदमों से,
लिपटा हुआ चिथड़ों से,
दुर्बल तन, शिथिल मन;
लिए हाँथ में भिक्षा का प्याला !
वह देखो भिक्षुक सभय,
पथ पर चला आ रहा है/

क्षुधा सालती उदर को,
भटक रहा वह दर-दर को,
सभ्य समाज का वह बिम्ब;
जिसमें उसने जीवन ढाला,
खोकर मान-अभिमान,
पथ पर चला आ रहा है/

हर प्राणी लगता दानी ,
पर कौन सुने उसकी कहानी,
तिरिष्कार व घृणा से,
जिसने  है उदर को पला ;
घुट-घुट कर जीता जीवन,
पथ पर चला जा  रहा है/

हाँथ पसारे, दाँत दिखाए,
राम रहीम की याद दिलाये;
मन को देता ढाढस;
मुख पर डाले ताला,
लिए  निकम्मा का कलंक,
पथ पर चला जा  रहा है/

टिप्पणियाँ

  1. हूबहू चित्रण ... जीवन के सत्य को झेलते हैं ये ...

    जवाब देंहटाएं
  2. हर प्राणी लगता दानी ,
    पर कौन सुने उसकी कहानी,
    सच कहा आपने |
    latest post महिषासुर बध (भाग २ )

    जवाब देंहटाएं
  3. आपकी लिखी रचना मुझे बहुत अच्छी लगी .........
    शनिवार 19/10/2013 को
    http://nayi-purani-halchal.blogspot.in
    में आपकी प्रतीक्षा करूँगी.... आइएगा न....
    धन्यवाद!

    जवाब देंहटाएं
  4. सच कौन सुने उसकी कहानी......
    मार्मिक...

    अनु

    जवाब देंहटाएं
  5. निराला की भिक्षुक कविता याद आ गयी...साधुवाद...।

    जवाब देंहटाएं
  6. सचमुच सत्य चित्रण , भाव पूर्ण रचना , बधाई आपको ।

    जवाब देंहटाएं
  7. बहुत सुंदर चित्रण , भाव पूर्ण रचना , बधाई आपको ।

    जवाब देंहटाएं
  8. हर प्राणी लगता दानी ,
    पर कौन सुने उसकी कहानी,
    तिरिष्कार व घृणा से,
    जिसने है उदर को पला ;
    घुट-घुट कर जीता जीवन,
    पथ पर चला जा रहा है/
    बहुत ही भावुक करते शब्द

    जवाब देंहटाएं

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