जिंदगी कहाँ कहाँ से गुजरती चली गयी,
दुःख-सुख के लम्हों से संवरती चली गयी।
जैसे ही हुआ पैदा, रिश्तों ने बांध लिया,
जोड़-तोड़ में जिंदगी बिखरती चली गयी।
रोटी,पैसा और फिर अपनों की तलाश में
राहे गुजर में यहाँ-वहाँ भटकती चली गयी।
जिस दीवार के सर पे थी छत टिकी हुयी,
क्यों वो नेह की दीवार दरकती चली गयी।
जिंदगी कहाँ कहाँ से गुजरती चली गयी,
दुःख-सुख के लम्हों से संवरती चली गयी।
दुःख-सुख के लम्हों से संवरती चली गयी।
जैसे ही हुआ पैदा, रिश्तों ने बांध लिया,
जोड़-तोड़ में जिंदगी बिखरती चली गयी।
रोटी,पैसा और फिर अपनों की तलाश में
राहे गुजर में यहाँ-वहाँ भटकती चली गयी।
जिस दीवार के सर पे थी छत टिकी हुयी,
क्यों वो नेह की दीवार दरकती चली गयी।
जिंदगी कहाँ कहाँ से गुजरती चली गयी,
दुःख-सुख के लम्हों से संवरती चली गयी।
बहुत खूब ... जिंदगी सुकून की तलाश में भटक ही रही है ...
जवाब देंहटाएंसाभार।
हटाएंसाभार।
हटाएंवाह
जवाब देंहटाएंजिस दीवार के सर पे थी छत टिकी हुयी,
क्यों वो नेह की दीवार दरकती चली गयी।