गम के सिलसिले थमते कहाँ हैं;
न जाने तुम कहाँ हो, हम कहाँ हैं।
वक्त रोज़ गुजार देता है हमको;
सदियों से लम्हे गुजरते कहाँ हैं।
अक्सर गूँजती हैं सन्नाटों में तन्हाइयाँ;
वीरान दोनों के ही अपने जहाँ हैं।
हर शाम गुजरती है गमगीन होकर;
महफिलों में भी हम रहते तन्हा हैं।
गम के सिलसिले थमते कहाँ हैं;
न जाने तुम कहाँ हो, हम कहाँ हैं।
न जाने तुम कहाँ हो, हम कहाँ हैं।
वक्त रोज़ गुजार देता है हमको;
सदियों से लम्हे गुजरते कहाँ हैं।
अक्सर गूँजती हैं सन्नाटों में तन्हाइयाँ;
वीरान दोनों के ही अपने जहाँ हैं।
हर शाम गुजरती है गमगीन होकर;
महफिलों में भी हम रहते तन्हा हैं।
गम के सिलसिले थमते कहाँ हैं;
न जाने तुम कहाँ हो, हम कहाँ हैं।
bahut hi sundar rachna
जवाब देंहटाएंPadhaaare ....
www.knightofroyalsociety.blogspot.com
वक्त रोज़ गुजार देता है हमको;
जवाब देंहटाएंसदियों से लम्हे गुजरते कहाँ हैं।..
बहुत लाजवाब शेर है इस यथार्थ परक ग़ज़ल का ...
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (15-12-2014) को "कोहरे की खुशबू में उसकी भी खुशबू" (चर्चा-1828) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
धन्यवाद सर ।
हटाएंवक्त रोज़ गुजार देता है हमको;
जवाब देंहटाएंसदियों से लम्हे गुजरते कहाँ हैं।
अच्छी रचना ,इन्तिहा ये लफ्ज ही मुहं से निकलते हैं
सुन्दर.
जवाब देंहटाएंक्या बात लिखी है आपने
"महफिलों में भी हम रहते तन्हा हैं।"
पढ़कर अच्छा लगा.
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