गुजर-बसर हमने कुछ यूँ करली,
खुद ही जिंदगी बेआबरू करली
ढूंढते रहे सकूं उम्रभर जहां में,
आखिर गमों की जुस्तजू करली ।
वीराने में किसको सुनाऊं दास्तां,
खामोशियों से ही गुफ़्तगू करली।
इश्क करने को कई खुदा थे जहां में
फिर तेरे ही बुत से सरफ़रू कर ली।
जाहिर है सुल्ह-जू नहीं श़फ़क पे,
नूर-ए- इलाही को चार-सू कर ली।
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