बेवजह भटक रहा तू तलाश में,
वो वफा अब जमाने में न रही।
मोहब्बत बस नाम भर की है यहाँ,
वो दीवानगी दीवाने में न रही।
घड़ी भर को जो भुला दे,ऐ साकी,
वो मयकशी मयखाने में न रही।
किस्से भी फाख्ता हुये रांझों के,
कशिश हीर के फसाने में न रही।
बेवजह भटक रहा तू तलाश में,
वो वफा अब जमाने में न रही।
वो वफा अब जमाने अब नहीं
जवाब देंहटाएंसुन्दर ग़ज़ल
आभार
पहली पंक्ति में तोड़-फोड़ हेतु क्षमा
सादर
गुरुवार, 22 दिसंबर 2022 को 5:08:00 pm GMT-8 बजे
जवाब देंहटाएंदिन दिनांक पुनः सेट करें
सादर
धन्यवाद, ठीक कर दिया
हटाएंआदरणीय,
जवाब देंहटाएंकृपया स्पेम कमेंट में स्थित पाँच लिंकों का आमंत्रण पब्लिश कर दीजिए।
आपकी रचना पाँच लिंकों के आज के अंक में जोड़ी गयी है।
सादर।
ये स्पैम कमेंट कहाँ मिलेंगे
हटाएंपढ़ते हुए ग़ालिब का एक शेर याद आ रहा है
जवाब देंहटाएंकी वफ़ा हम से तो ग़ैर इस को जफ़ा कहते हैं
होती आई है कि अच्छों को बुरा कहते हैं।
बेहतरीन लिखा है ।
बेवजह भटक रहा तू तलाश में,
जवाब देंहटाएंवो वफा अब जमाने में न रही।
वाह!!!
बहुत खूस...लाजवाब।
किस्से भी फाख्ता हुये रांझों के,
जवाब देंहटाएंकशिश हीर के फसाने में न रही।//
बहुत खूब!!👌👌