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मयकशी मयखाने में न रही

 बेवजह भटक रहा तू तलाश में,

वो वफा अब जमाने में न रही।


मोहब्बत बस नाम भर की है यहाँ, 

वो दीवानगी दीवाने में न रही।


घड़ी भर को जो भुला दे,ऐ साकी,

वो मयकशी मयखाने में न रही।


किस्से भी फाख्ता हुये रांझों के,

कशिश  हीर के फसाने  में न रही।


बेवजह भटक रहा तू तलाश में,

वो वफा अब जमाने में न रही।

टिप्पणियाँ

  1. वो वफा अब जमाने अब नहीं
    सुन्दर ग़ज़ल
    आभार
    पहली पंक्ति में तोड़-फोड़ हेतु क्षमा
    सादर

    जवाब देंहटाएं
  2. गुरुवार, 22 दिसंबर 2022 को 5:08:00 pm GMT-8 बजे
    दिन दिनांक पुनः सेट करें
    सादर

    जवाब देंहटाएं
  3. आदरणीय,
    कृपया स्पेम कमेंट में स्थित पाँच लिंकों का आमंत्रण पब्लिश कर दीजिए।
    आपकी रचना पाँच लिंकों के आज के अंक में जोड़ी गयी है।
    सादर।

    जवाब देंहटाएं
  4. पढ़ते हुए ग़ालिब का एक शेर याद आ रहा है

    की वफ़ा हम से तो ग़ैर इस को जफ़ा कहते हैं

    होती आई है कि अच्छों को बुरा कहते हैं।
    बेहतरीन लिखा है ।

    जवाब देंहटाएं
  5. बेवजह भटक रहा तू तलाश में,

    वो वफा अब जमाने में न रही।

    वाह!!!
    बहुत खूस...लाजवाब।

    जवाब देंहटाएं
  6. किस्से भी फाख्ता हुये रांझों के,
    कशिश हीर के फसाने में न रही।//
    बहुत खूब!!👌👌

    जवाब देंहटाएं

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