उसने कब मुझे ही मुसलसल चाहा,
जब भी चाहा - अलैहदा ही चाहा।
अहदे वफ़ा की क्या दरकार करें,
हमने भी उसको इस कदर न चाहा।
चाहत उल्फत की थी दोनों दिलों में ,
मगर किसी ने भी किसी को न चाहा।
मगरूर थे सब अपनी खुद्दारी में,
ज़माने भर ने ज़माने को न चाहा।
कितनी ख़ुशनुमा होती ये दुनिया,
बन्दे ने गर बन्दे को होता चाहा।
बेहतरीन गज़ल
जवाब देंहटाएंसादर।
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जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना शुक्रवार २१ अप्रैल २०२३ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
चाहत उल्फत की थी दोनों दिलों में ,
जवाब देंहटाएंमगर किसी ने भी किसी को न चाहा।
कितनी ख़ुशनुमा होती ये दुनिया,
बन्दे ने गर बन्दे को होता चाहा।
यह तो बड़ी बिडम्बना है और इस बिडम्बना को गजल में ढ़ालना ...अद्भुत
लाजवाब गजल
जब चाहने से ज्यादा ,अना को सामने पाया
जवाब देंहटाएंफिर क्या शिकवा कि किसने कितना चाहा ।
जी, हर इंसान अहम में जी रहा है।
हटाएंशानदार रचना
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