अब तो सूखी नदी
और उजड़े चमन के
निशां भी नहीं मिलते !
बड़ों को ताऊ, काका
और काकी , माँ
भी नहीं कहते !!
शायद नदी की तरह ही
सूख रही है हमारी
सदियों सभ्यता की
पारम्परिक धारा !!
औरों के लिए तो
कहा ही क्या जाय
जब अम्मा -बाबू के
चरण छूना हीन
महसूस करता है!!
कान्वेंट का सपना
सभी माँ-बाप करते
अपने बच्चों के लिए,
भले ही संस्कार
मूल्य हीन हो जाय !!
नहीं बुरा है औरों की
सभ्यता और संस्कृति
पर अपनी जननी और
जन्मभूमि का अपमान
किसे होगा सहन,
कौन देख सकेगा
तडपते हुए अपने
अम्मा-बापू को !!
और उजड़े चमन के
निशां भी नहीं मिलते !
बड़ों को ताऊ, काका
और काकी , माँ
भी नहीं कहते !!
शायद नदी की तरह ही
सूख रही है हमारी
सदियों सभ्यता की
पारम्परिक धारा !!
औरों के लिए तो
कहा ही क्या जाय
जब अम्मा -बाबू के
चरण छूना हीन
महसूस करता है!!
कान्वेंट का सपना
सभी माँ-बाप करते
अपने बच्चों के लिए,
भले ही संस्कार
मूल्य हीन हो जाय !!
नहीं बुरा है औरों की
सभ्यता और संस्कृति
पर अपनी जननी और
जन्मभूमि का अपमान
किसे होगा सहन,
कौन देख सकेगा
तडपते हुए अपने
अम्मा-बापू को !!
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