मेरे ही वजूद में तुम
समा जातेहो सवजूद !
फिर भी अखरता है
तुम्हें ये मेरा वजूद !
जब-जब तुम्हे हुयी मेरी जरूरत,
मिन्नते की गिड़-गिड़ाये और
न जाने कितने सपने दिखाए,
फिर अपना वजूद दिखाने के लिए
तिरष्कृत किया और मेरे ही अस्तित्व को
मिटाने का प्रयास करते रहे !
हे पुरुष! धन्य है ,
तुम्हारे वजूद की आकांक्षा
और विडम्बना !
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें