कौन समझता है,
नदी की तपन को !
रही तरसती
बूँद-बूँद वह
उम्र भर!
साक्षी बनती रही,
हर एक प्यास की
तृप्ति में वह !
पी न सकी कभी,
एक घूँट भर !
ढोती रही अधूरी प्यास,
मन में लिए हर क्षण!
रही भटकती वह,
गाँव शहर
पर्वत सागर !
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