नदी की धारा,
जो अनवरत
गतिज है
अनंत सागर में
लीन होने के लिए !
मिट जायेगा
अस्तित्त्व उसका
पर साकार हो जायेगी
और विस्तृत होने के लिए !
जल की वह बूँद
जो आतुर है
धरा की प्यास को
बुझाने के लिए !
ऐसे जीवन जो
मिटा देते हैं स्वयं के
अस्तित्व को
किसी और के
अस्तित्व के लिए !
पर यह मानव जीवन
हो गया स्वार्थी
मिटा रहा है अन्य को
स्वयं के लिए !
अरे सोंच !
क्यों हुआ तेरा
प्रादुर्भाव और
यह जीवन किस के लिए !
बहुत सुन्दर धीरेन्द्र जी.....
जवाब देंहटाएंसीतापुर से मेरा भी सम्बन्ध है...
एक बहुत ही अपनापन...
जिसे सीधे सरल सब्दों में मायका कहा जा सकता है.....
ख़ुशी होती है जब इस सफ़र में कोई अपनी जगह का भी जुड़ जाता है....!!