नीरस प्राण
लिए पागल
मैं कहता हूँ;
ठहर तो सही
पल दो पल के लिए !
कितना चला
चलकर भी
न थका अब ,
है व्याकुल तू ,
किस नभ - थल के लिए!
उलझ रहा
राग-द्वेष के
मिथ्या रस में ;
भ्रमित भटकता
तृष्णा में जल के लिए !
अश्रांत जीवन
व्योमोहित मन ,
लिए व्यर्थ व्यथा ;
व्यथित है तू
अनिश्चित कल के लिए !
खोकर प्राप्य
खोजता अज्ञेय ;
सोंच तनिक जो
क्यों चिंतित है
अदृश्य फल के लिए !
लिए पागल
मैं कहता हूँ;
ठहर तो सही
पल दो पल के लिए !
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें