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समर्पण


तुम्हारा वह लाल गुलाब;
आज भी उसी किताब में रखा है,
पर उसकी हर एक पांखुरी और अधर-पत्र;
सूखकर जर्जर और क्षीर्ण हो गये हैं!

तुम्हारे उस अप्रतिम उपहार को;
क्षीर्ण होने से न बचा सका ;
और तुम्हारे वो अव्यक्त उदगार,
आज भी मेरे लिए उतने ही
रहस्य-पूर्ण बने हैं!

क्योंकि मूक समर्पण की भाषा 
मैं समझ न सका था;
और उस भूल के प्रयाश्चित में
मैं और तुम्हारा लाल गुलाब 
दोनों ही रंगहीन हो गये !

टिप्पणियाँ

  1. मूक समर्पण न समझने पर लाल गुलाब और दोषी का रंगहीन होना...

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  2. आपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टि की चर्चा कल मंगलवार ८ /७ /१ ३ को चर्चामंच पर राजेश कुमारी द्वारा की जायेगी आपका वहां हार्दिक स्वागत है ।

    जवाब देंहटाएं
  3. अव्यक्त उदगार बहुत पीछा करते है. सुन्दर रचना.

    जवाब देंहटाएं
  4. पुरानी यादों को समेटे एक भावभरी रचना के लिये बधाई

    जवाब देंहटाएं
  5. बहुत खुबसूरत एहसास पिरोये है अपने......

    जवाब देंहटाएं
  6. समर्पण जब प्रेम नें हो तो कैसा प्रायश्चित ...
    गहरा रहस्य छिपा है इन पंक्तियों के पीछे ...

    जवाब देंहटाएं

  7. ह्म्म्म...क्या बात हे....कुछ भूलें ....करने वाले को ज्यदा दुःख देती हैं...और उसका प्रयाश्चित करना ..अपनी वेदना को कम करने के लिए सहयक होता हे...हम्म..बहुत अच्छी रचना

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