तुम्हारा वह लाल गुलाब;
आज भी उसी किताब में रखा है,
पर उसकी हर एक पांखुरी और अधर-पत्र;
सूखकर जर्जर और क्षीर्ण हो गये हैं!
तुम्हारे उस अप्रतिम उपहार को;
क्षीर्ण होने से न बचा सका ;
और तुम्हारे वो अव्यक्त उदगार,
आज भी मेरे लिए उतने ही
रहस्य-पूर्ण बने हैं!
क्योंकि मूक समर्पण की भाषा
मैं समझ न सका था;
और उस भूल के प्रयाश्चित में
मैं और तुम्हारा लाल गुलाब
दोनों ही रंगहीन हो गये !
वाह, बेहद खूबसूरत भाव मय रचना.
जवाब देंहटाएंरामराम.
मूक समर्पण न समझने पर लाल गुलाब और दोषी का रंगहीन होना...
जवाब देंहटाएंmook samarpan ki bhasha kaha koi samjh pata hai?
जवाब देंहटाएंआपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टि की चर्चा कल मंगलवार ८ /७ /१ ३ को चर्चामंच पर राजेश कुमारी द्वारा की जायेगी आपका वहां हार्दिक स्वागत है ।
जवाब देंहटाएंबहुत उम्दा भावपूर्ण लाजबाब प्रस्तुति,,,
जवाब देंहटाएंRECENT POST: गुजारिश,
अव्यक्त उदगार बहुत पीछा करते है. सुन्दर रचना.
जवाब देंहटाएंपुरानी यादों को समेटे एक भावभरी रचना के लिये बधाई
जवाब देंहटाएंसुन्दर एहसास
जवाब देंहटाएंबहुत खुबसूरत एहसास पिरोये है अपने......
जवाब देंहटाएंsandaeshparak panktiyan.
जवाब देंहटाएंसमर्पण जब प्रेम नें हो तो कैसा प्रायश्चित ...
जवाब देंहटाएंगहरा रहस्य छिपा है इन पंक्तियों के पीछे ...
जवाब देंहटाएंह्म्म्म...क्या बात हे....कुछ भूलें ....करने वाले को ज्यदा दुःख देती हैं...और उसका प्रयाश्चित करना ..अपनी वेदना को कम करने के लिए सहयक होता हे...हम्म..बहुत अच्छी रचना