पहाड़ों पर
देवदार और कुटज के जंगलों में ,
अक्सर ले जाया करते थे घाटी में
रहने वाली जनजातियों के चरवाहे ,
अपने-अपने भेड़ - बकरियों के झुंडों को। ।
कहीं- कहीं
उन जंगलों के पहाड़ों से
रिसता था
मीठे पानी का स्रोत ।
कितना
शांत और प्रफुल्लित होता था
पहाड़-पानी और
जनजातियों का
समागम।
न थी कहीं पर
घृणा और न ही था कहीं पर
लोभ -क्षोभ।
अब तो बस
इमारतें और बस इमारतें ही हैं
चारो तरफ,
जिनमे भरा है
लोभ-अहम्
अपने -पराये का वहम।
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