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प्रयाश्चित!

तुम्हारा वह लाल गुलाब;
आज भी उसी किताब में रखा है,
पर उसकी हर एक पांखुरी और अधर-पत्र;
सूखकर जर्जर और क्षीर्ण हो गये हैं!


तुम्हारे उस अप्रतिम उपहार को;
क्षीर्ण होने से न बचा सका ;
और तुम्हारे वो अव्यक्त उदगार,
आज भी मेरे लिए उतने ही
रहस्य-पूर्ण बने हैं!


क्योंकि मूक समर्पण की भाषा
मैं समझ न सका था;
और उस भूल के प्रयाश्चित में
मैं और तुम्हारा लाल गुलाब
दोनों ही रंगहीन हो गये !

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