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" ये दीवारें !


सदियों से खड़ी,
ये घर-घर की दीवारें;
सागर में बहती
नाव की नहीं हैं पतवारें!
बहुत सा लादे हैं 
बोझा ये दीवारें!
ये भी कुछ हमसे
अब कहने वाली हैं,
मेरे घर की दीवारें;
अब ढहने वाली हैं !!

जोड़-जोड़ कर
तोड़-तोड़ कर बनाया;
हमने अपने आलय!
कुछ तो बने घर;
कुछ को भवन बनाया,
और कहीं पर देवालय!!
ये जोड़-तोड़
अब न सहने वाली हैं,
मेरे घर की दीवारें;
अब ढहने वाली हैं !!

घर और देवालय की
बात ठीक पर तुमने
बना डाले मदिरालय!
बना डाले द्यूत गृह 
और  न जाने कितने
बना दिए वैश्यालय !!
मूक खड़ी होकर;
अब न ये रहने वाली हैं, 
मेरे घर की दीवारें;
अब ढहने वाली हैं !!

हाय मानव !
खोकर मानवता 
तू मानव कहलाता है!
पहले निर्माण
फिर भीषण प्रहार;
तुझे करना भाता है!!
यह निर्मम प्रहार;
अब न सहने वाली हैं,
मेरे घर की दीवारें;
अब ढहने वाली हैं !!

टिप्पणियाँ

  1. आपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टि की चर्चा कल मंगलवार 4/9/12 को चर्चाकारा राजेश कुमारी द्वारा चर्चा मंच http://charchamanch.blogspot.inपर की जायेगी|

    जवाब देंहटाएं
  2. बेह्तरीन अभिव्यक्ति .आपका ब्लॉग देखा मैने और नमन है आपको
    और बहुत ही सुन्दर शब्दों से सजाया गया है लिखते रहिये और कुछ अपने विचारो से हमें भी अवगत करवाते रहिये.

    http://madan-saxena.blogspot.in/
    http://mmsaxena.blogspot.in/
    http://madanmohansaxena.blogspot.in/

    जवाब देंहटाएं
  3. तारीफ के लिए हर शब्द छोटा है - बेमिशाल प्रस्तुति - आभार.

    जवाब देंहटाएं

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