लोग यूँ ही अंगुलियाँ नही उठाते ;
तेरे चर्चों में मेरा भी नाम है!
एक तेरा ही मुजरिम रहा मैं,
जमाना तो बेवजह बदनाम है!
गुनाह खुद ही कर बैठे थे खुद से,
ये तो फैला हुआ तेरा ही दाम है!
ये तो फैला हुआ तेरा ही दाम है!
कबूल है हर एक सजा भी अब,
बचना क्या- होना कत्ल-ए-आम है!
भाव्पूत्न रचना है "एक तेरा ही मुजरिम रहा मैं
जवाब देंहटाएंज़माना तो बेवजह बदनाम है "सुन्दर पंक्ति |
आशा
कल 21/09/2012 को आपकी यह बेहतरीन पोस्ट http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
जवाब देंहटाएंधन्यवाद!
बेहतरीन प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंशानदार ग़ज़ल
जवाब देंहटाएंबहुत खूब...
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