साँझ ढलने पर;
जब दिया
जलाती हूँ ,
रहता है मुझे भी
इन्तजार
उस उजाले का ;
जो मिटा दे मेरे
जीवन का
सारा अँधेरा ;
पर हर रात
भारी पड़ जाती है
इस दीपक पर '
सोंचती हूँ
क्यों आता है
प्रभात हर बार;
फिर छोड़ जाता है,
वही निबडी
तमिसा मयी रात!
शोर के साये में
कट जाते हैं
थके हुए दिन ,
पर सन्नाटे में
बोझिल रातें
कैसे काटी जायं!
हर शाम वही
अँधेरा और
विरोध करता दीपक !
दोनों अपनी जगह
तटस्थ , इन्तजार
और ये रातें !
जब दिया
जलाती हूँ ,
रहता है मुझे भी
इन्तजार
उस उजाले का ;
जो मिटा दे मेरे
जीवन का
सारा अँधेरा ;
पर हर रात
भारी पड़ जाती है
इस दीपक पर '
सोंचती हूँ
क्यों आता है
प्रभात हर बार;
फिर छोड़ जाता है,
वही निबडी
तमिसा मयी रात!
शोर के साये में
कट जाते हैं
थके हुए दिन ,
पर सन्नाटे में
बोझिल रातें
कैसे काटी जायं!
हर शाम वही
अँधेरा और
विरोध करता दीपक !
दोनों अपनी जगह
तटस्थ , इन्तजार
और ये रातें !
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