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आह्वान !



तोड़ दो सपनों की दीवारें 
मत रोको सृजन के चरण को!
फैला दो विश्व के वितान पर;
मत टोको वर्जन के वरण को !

कितनीं आयेंगी मग में बाधाएँ ,
बाधाओं का कहीं तो अंत होगा ही 
कौन सका है रोक राह प्रगति की ;
प्रात रश्मियों के स्वागत का यत्न होगा ही!

नीड़ से निकले नभचर को 
अभय अम्बर में उड़ने दो!
प्रलय के विलय से न हो भीत,
तृण - तृण  को सृजन से जुड़ने दो !
जला कर ज्योति पुंजों को 
हटा दो तम के आवरण को !
तोड़ दो सपनों की दीवारें 
मत रोको सृजन के चरण को!

कंचन कामिनी और कीर्ति का 
जग हेतु तुम परित्याग कर दो ;
फूंक प्राण चेतना के उर में,
नव सृजन का अनुराग भर दो!

कुंठित कुंठाओं का क्लेश हार ,
नव आश का सनचार कर दो!
मिटाकर दानवता इस जग से ;
मानवता का शृंगार कर दो !

विस्मृत कर निज वेदना को ;
रोक लो तुम निर्मम प्रहरण को !
तोड़ दो सपनों की दीवारें 
मत रोको सृजन के चरण को!

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