तुम्हारी रोज की
ठक-ठक से मैं ,
तंग आ चुकी हूँ !
ऊब चुकी हूँ
इस जिल्लत व्
नरक की जिन्दगी से;
अब तुम्हें तो दूर,
खुद को ही सम्भालना
लगता है पहाड़ उठाना !
जब से पैदा हुयी
मानो वही था मेरा
जघन्य अपराध ;
चिता की चिंगारियों
तक झेलनी है
ये सामाजिक सजा !
पर कभी सोंचा है,
मेरे बाद कैसे मिटेगी
तुम्हारी अतृप्त भूख!!
किसको और कैसे
करोगे प्रताड़ित व्
कौन सहेगा ये कटाक्ष !
कठिन है एकांकी मन लेकर
जीवन जीना , बोझिल बन जाएगी
ये जिन्दगी तुम्हारी !
नीरस और बंजर
उस जमीन की तरह ,
जहाँ कोई नही चलाता हल ,
और न ही बोता है
अन्न का एक भी दाना !!
ठक-ठक से मैं ,
तंग आ चुकी हूँ !
ऊब चुकी हूँ
इस जिल्लत व्
नरक की जिन्दगी से;
अब तुम्हें तो दूर,
खुद को ही सम्भालना
लगता है पहाड़ उठाना !
जब से पैदा हुयी
मानो वही था मेरा
जघन्य अपराध ;
चिता की चिंगारियों
तक झेलनी है
ये सामाजिक सजा !
पर कभी सोंचा है,
मेरे बाद कैसे मिटेगी
तुम्हारी अतृप्त भूख!!
किसको और कैसे
करोगे प्रताड़ित व्
कौन सहेगा ये कटाक्ष !
कठिन है एकांकी मन लेकर
जीवन जीना , बोझिल बन जाएगी
ये जिन्दगी तुम्हारी !
नीरस और बंजर
उस जमीन की तरह ,
जहाँ कोई नही चलाता हल ,
और न ही बोता है
अन्न का एक भी दाना !!
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