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' नैराश्य व् नव निर्माण '

तुम क्यों कर निराश हो जाते हो ;
क्या तुम्हें निज का मान नहीं?
है शेष आशा की किरण अभी,
क्या तुम्हें कुछ अनुमान नहीं /
                       

                               सपनों की दीवारें तोड़ो,
                               अरे! मन को न निराश करो;
                               स्वयं को तुम सृजन से जोड़ो;
                               नव निर्माण का प्रयास करो /




झंझा से हो आकुल फिर क्यों;
करता विहग नीड़ का सृजन?
नव प्रभात की नव किरणों से;
करो  प्रियतम तुम अनुरंजन /




                               क्यों जलता दीप है तिमिर हेतु,
                               क्या इसका प्रकाश व्यर्थ है ?
                               क्यों करता यह मार्ग दर्शन ,
                               फिर क्या समर्पण का अर्थ है !




क्यों बरसते वारिद धरा पर,
कहीं इनका भी स्वार्थ है;
क्यों निर्झर झरते कानन में ;
क्या व्यर्थ श्रम निःस्वार्थ है ?




                                 क्या मिल जाता है सरिता को,
                                  जो अहर्निश बहता रहता ;
                                 फल -फूल देकर तरुवर- विटप ;
                                 पर क्या कभी कुछ है कहता !




परस्वार्थ करते जो जीवन में;
विपत्ति से न घबराते हैं,
ऐसे ही कर्म धीर मानव वीर,
यहाँ जग में यश पाते हैं /




                                

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