सावन में
अब नहीं खुलता
दादुर का कंठ,
बसंत में
धुंधली ही रहती
अब वह
पीली चूनर,
क्यों नहीं बजती
गेंहूं की बाली
और धान की पायल
तिल के वो
मीठे लड्डू
जिनमे थी
माँ के हांथों की
निश्छल मिठास
कहाँ गया
वह प्रकाश पुंज
जो जलता था
तुलसी के
आंगन में!
कहाँ है वो
राम के
स्वागत में
जलने वाले
ज्योति पुंज!
शायद अब
इस लंका में
रावण ही है
हमारा
अन्नदाता और
पालनहार '
बन कर
विभीषण अब
कलंक न लगाना
अपने मस्तक पर !
कब होगा ये
निशा का अवसान !
सुन्दर!
जवाब देंहटाएंनिशा का अवसान भी होगा...
सुबह होगी...! यह आशा जब तक जीवित है तब तक जीवन है... संभावनाएं हैं!