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'संसय,

पुष्पों का चिर रुदन ,
जीवों का यह कृन्दन ,
अब और तुषारापात!
सह कर रहा नहीं जाता !

सूरज भी व्याकुल है ;
उसका भी मन आकुल है,
ह्रदय पर यह आघात ,
चुप रह सहा नहीं जाता !

कुहासे की यह क्रीड़ा,
देखकर अत्न की पीड़ा ;
निज पर निज का संघात!
कुछ और कहा नहीं जाता

जीवन में यह कैसा संसय ,
देख कर हो रहा विस्मय ;
चल रहा कैसा चक्रवात ;
अब और चुप रहा नहीं जाता !

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