लोगों का पेट भरता रहा!
कभी गाली, कभी उलाहना
खामोश रह कर सहता रहा !
सारे जहाँ का गम
अपना समझा ,
पर यहाँ निकम्मा ही
कहलाता रहा
गर्मी का तपता सूरज हो
या हो दिसम्बर का
कपकपाता जाड़ा,
न मौसम का गिला दिया
अपना फर्ज समझ कर कर्ज
निभाता रहा !
रुका न कभी साँस रुकने तक
पेट के लिए धरती की छाती को
चीरकर , अन्न उगाता रहा !
खाने को भोजन और
पीने के पानी हेतु
हमेशा लड़ता रहा !
और
क्या मिला ये बताकर मैं
खुद को क्यों
जिन्दा जलाता रहा !
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