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संपूर्ण स्वतंत्रता : भ्रम या यथार्थ:


इस परिचर्चा  शामिल सभी मनीषियों से क्षमा याचना मांगते हुए उनके विचारो को संकलित कर  रहा हूँ , 






आज मित्र आशुतोष कुमार ने इस महत्वपूर्ण मुद्दे को अपना स्टेटस बनाकर, बिना कहे, पिछले दिनों देश में इस मुद्दे पर बढ़ी बौद्धिक सरगर्मी को ज़ुबान दी. पूरी पृष्ठभूमि से आप सब वाकिफ़ हैं. इसलिए उसे दोहराना आप सबका वक़्त ज़ाया करने जैसा होगा.






"क्या सचमुच कोई कहने की मुकम्मल आज़ादी का समर्थक है ?लेकिन जो कोई भी बेहूदगी , भावनाओं ( खास कर धार्मिक ) पर चोट और क़ानून के नाम पर कहने की आज़ादी पर प्रतिबन्ध के लिए किसी न किसी हद तक राजी है , उस से केवल एक सवाल है !उन तमाम धार्मिक पुस्तकों का क्या होना चाहिए , जिन में इस या उस तरीके की बेहूदगियों तथा नास्तिकों-असहमतों -मेहनतकशों और औरतों की भावनाओं को चोट पहुंचानेवाली बातों की कोई कमी नहीं है ?....चाहे ऐसा मेरी और मुझ जैसे कुछ जाहिलों की नज़र में ही क्यों न हो . भावनाएं तो हम जाहिलों की भी होती होंगी!" इस पर मैंने यह टीप की थी.






"मैं अपने आपको आप वाली पांतों (जाहिलों की) में खड़ा पाते हुए भी इस/ऐसे समाज में "मुक़म्मल आज़ादी" को एक खयाल से ज़्यादा और अलग नहीं देख पाता. मुझे लगता है मेरी/आपकी भावनाओं को चोट पहुंचने को कोई ख़ास अहमियत मिलने वाली नहीं है: न इस कोने से, और न उस कोने से. मामला सिर्फ़ धर्म का न भी हो तो भी बंटे हुए समाजों में (चाहे धर्म के नाम पर अथवा वर्ग के नाम पर) जिनके हाथ में राजनैतिक/धार्मिक सत्ता है, वे ऐसी आज़ादी की इजाज़त देने वाले नहीं हैं. और यूं भी आज़ादी सापेक्ष से ज़्यादा कुछ हो नहीं सकती. absolute तो क़तई नहीं. आपको ध्यान होगा लेनिन ने वर्ग समाज में आज़ादी का कितना सशक्त, पर तीखा, रूपक बांधा था. वह अविकल रूप से उद्धृत करने लायक़ है, और मैं देखता हूं, 'क्यों' के किसी अंक में ही शायद मिल जाए तो कल साझा करता हूं."






और लीजिए मुझे, बिना अधिक खोज-तलाश के लेनिन के एक महत्वपूर्ण लेख का वह अंश मिल गया जिसमें वह संपूर्ण स्वतंत्रता संबंधी लेखकीय दावों के छद्म को बेहद निर्ममता से उघाड़ते हैं. आंख में उंगली डालके दिखाना इसे ही कहते हैं.






"उस समाज में कोई वास्तविक और प्रभावकारी 'स्वतंत्रता हो ही नहीं सकती जो धन की सत्ता पर आधारित है, जिस समाज में कामगार जनता दरिद्रता में रहती है और मुट्ठी भर धनी लोग परोपजीवियों की तरह रहते हैं. और लेखक महोदय, क्या आप अपने बूर्जुआ प्रकाशक से स्वतंत्र हैं, उन बूर्जुआ पाठकों से स्वतंत्र हैं, जो आपसे उपन्यासों में और चित्रों में पोर्नोग्राफी की मांग करते हैं और पवित्र नाट्य कला में वेश्यावृत्ति को एक 'परिशिष्ट' के रूप में चाहते हैं? यह पूर्ण स्वतंत्रता एक बूर्जुआ या अराजक शब्दावली है... यह नहीं हो सकता कि कोई समाज में रहे भी और समाज से स्वतंत्र भी हो. बूर्जुआ लेखक, कलाकार या अभिनेत्री की स्वतंत्रता महज़ एक मुखौटा है, जिसके नीचे पैसा, भ्रष्टाचार और वेश्यावृत्ति पर निर्भर रहने की बात को छिपाया जाता है."--


- मोहन श्रोत्रिय









अशोक कुमार पाण्डेय




एक खास परिस्थिति में लिखा गया यह उद्धरण महत्वपूर्ण है. लेकिन जहाँ सामंती मनोवृति फिर से सर उठाने

लगे वहाँ बुर्जुआ लेखक की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता महत्वपूर्ण हो जाती है. यहाँ हमें यह देखना होगा कि

लेखक की अभिव्यक्ति की स्वततंत्रता को बैन करने वाली ताक़तों का वर्ग-चरित्र क्या है. क्या वे प्रगतिशील

ताक़तें हैं? क्या हुसैन, तस्लीमा, रश्दी, रोहिंटन मिस्त्री.....को बैन करने वाली और उनके बैन की मांग करने

वाली ताक़तें इन लेखकों की तुलना में कम बुर्जुआ या प्रगतिशील हैं










मोहन श्रोत्रिय

बेशक. लेकिन ध्यान देने की बात यह है कि शासक वर्गअपने से इतर सोचने वालों पर भी अपनी प्रभावी

विचारधारा, जिसे मार्क्स से लेकर तमाम मार्क्सवादी ruling ideology कहते हैं, का वर्चस्व ही क़ायम करती और

रखती है वह तो करेंगे ही. सवाल यहां संपूर्ण स्वतंत्रता का है, जो वास्तविकता नहीं हो सकती वर्ग समाज में. लेखक तमाम वंचित तबकों की मुक्ति की बात के साथ अपनी स्वतंत्रता की मांग करे, यह तो अपनी वर्गीय दृष्टि से जायज़ होगा ही. मार्क्स से लेकर लेनिन तक सब लेखक की विशिष्टता की मांग या आग्रह को खंडित और प्रश्नांकित करते हैं. मैंने ज़्यादा सिर्फ़ इसलिए नहीं कहा क्योंकि मैं भी चाहता हूं कि बहस आगे बढ़े. हमें उक्त मांग पर डटे रहकर अपने आग्रहों की भी समीक्षा करनी होगी






अशोक कुमार पाण्डेयज़ाहिर है
ऐसे में भी एक बुर्जुआ शासन व्यवस्था द्वारा लगाये गए बैन का हम हमेशा विरोध करेंगेअसल में यह सैद्धांतिक अवस्थिति का मामला है जिससे मेरी सहमति है लेकिन एक बुर्जुआ शासन व्यवस्था में इस बहस को उठाना उसे बैन के पक्ष में तर्क उपलब्ध कराना होगा






मोहन श्रोत्रिय इससे किसे इनकार है? लेकिन यह भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि अधिसंख्य लोग जब मानवीय गरिमा के साथ जीने के अधिकार पर ही जब "प्रतिबंध" झेल रहे हों, तब अकेले लेखक के अधिकार को रेखांकित करना कितना न्यायोचित होगा? दूसरी बात यह कि अकेले "बैन" का प्रश्न इस "लेनिनीय" उक्ति से कहां निसृत होती है. मेरी मूल टीप में जिस वर्ग-समाज की वास्तविकता को रेखांकित किया गया था, और जिससे तुम्हारी पूरी सहमति थी, उसे इस उक्ति ने कहांसे और कैसे बदल दिया इस सैद्धांतिक अवस्थिति को मौजूदा वर्ग-समाज के बरक्स देखेंगे तो एक ख़ास किस्म की ज़िद से भी मुक्त होंगे, क्योंकि वस्तुगत यथार्थ के साथ उसकी संगति भी देखनी होगी.






आशुतोष कुमार मोहन श्रोत्रिय , लेनिन के इस कोट का पूरा सन्दर्भ दे दिया जाता तो बात करने में सुविधा होती .''वर्ग समाज में कहने की मुकम्मल आज़ादी मुमकिन नहीं है''--इस का यह मतलब नहीं हो सकता कि ऐसी आज़ादी एक मूल्य नहीं है , काम्य नहीं है . बुर्जुआ समाज आज़ादी का इस्तेमाल अय्याशी और उत्पीडन के लिए करता है --इस का भी यह मतलब नहीं कि मुकम्मल आज़ादी का ख़याल अपने आप में ही एक नागवार ख्याल है!. ..अन्याय के खिलाफ लड़ाई आखिर मनुष्य मात्र की आज़ादी के लिए लड़ाई नहीं तो और क्या है . बुर्जुआ आज़ादी को इंसानी आज़ादी में तब्दील करने का संघर्ष समझ में आता है , लेकिन इस का मतलब बुर्जुआ 'गुलामी' की जगह मज़हबी और कबीलाई गुलामी की तो बात क्या 'कम्युनिस्ट' गुलामी कायम करना भी नहीं हो सकता. ...मोहन दा , हमारे लिए यह बहस इसी लिए अधिक मौजूं है कि अतीत की कम्युनिस्ट सत्ताओं ने ' बुर्जुआ आज़ादी '' को खारिज करने की बात का आज़ादी के ख़याल को ही ख़ारिज के बहाने की तरह इस्तेमाल किया , इस से कम्युनिस्ट आंदोलन को जो चोट पहुँची , उस से उबरना जरूरी है . ... बेशक मुकम्मल आज़ादी मुकम्मल मनमानी का दूसरा नाम नहीं है , लेकिन आज़ादी अगर मुकम्मल नहीं है , तो फिर क्या आज़ादी है !






शमशाद इलाही शम्स बहुत शानदार बहस हुई है..अशोक भाई ने जो सवाल और शंकायें व्यक्त की हैं वह भारतीय परिस्थितियों में अपना विशेष महत्व रखती हैं, कई कई सदी वाली चेतनाओं का मिश्रण आपको एक साथ भारत में दिखता हो तब कोई फ़ैसलाकुन बात कहना वाकई गंभीर मसला है...कोई न कोई तबका जरुर उपेक्षित रह जायेगा..लेकिन लेनिन महान के माध्यम से मोहन दा ने जिस संदर्भ को समझाने की कोशिश की है शायद वह भारतीय स्थितियों में और अधिक विस्तार की अपेक्षा रखती है...और आशुतोष जी ने स्वतंत्रता के सवाल पर कम्युनिस्ट शासन के दौरान लेखकों पर हुई ज़्यादतियों की तरफ़ इशारा कर के गंभीरता के नये आयाम दिये हैं. ल्यु ज़्याबो को अभी चीन में १० साल का कारावास दिया गया है और इस सवाल पर मैंने कोई पत्ता हिलता नहीं देखा..मसला गंभीर है, नियम चयन के आधार पर नहीं बनने चाहिये...सुखारोव को जब जेल में डाला गया था, तब अपने छात्र जीवन में हमने सी.पी.एस.यू. की लाईन को फ़ोलो किया था जिसका अभी अफ़सोस होता है. स्वतंत्रता कभी पूर्ण हो ही नही सकती..उसे किन्ही नियमों और जिम्मेदारियों के बंधन में होना ही होगा..अन्यथा उसे स्वछंद्ता ही नाम दिया गया होता. और तबकाई समाज में आज़ादी के मायने ही बदल जाते हैं...मुल्लाह की अलग, पंडत की अलग, थानेदार की अलग और गांव के मुखिया की अलग....फ़ैक्ट्री में दिगर तो अखबार में कुछ और.






अशोक कुमार पाण्डेय असल में मेरा स्पष्ट मानना है कि युद्धोत्तर और असामान्य परिस्थितियों में क्रान्ति के बाद के रूस और चीन में शासन चलाने और प्रतिक्रान्तिकारियों की कारवाइयों को रोकने के लिए जो बाते कहीं /करीं गयीं उन्हें जब बाद में सामान्य परिस्थितियों में जड़सूत्रवादी तरीके से लागू किया गया तो वे एक निर्मम तानाशाही की शक्ल में सामने आईं. उनके पवित्र हथियार का प्रयोग जनता की जेनुइन आवाज़ को दबाने और लोकतांत्रीकरण तथा विकेन्द्रीकरण द्वारा सर्वहारा के बड़े समूह को सत्ता की निर्णय-प्रक्रिया में शामिल होने से रोकने के लिए किया गया जिसने क्रान्ति के वृहत्तर उद्देश्यों को क्षति पहुँचाई. अब हमें इन्हें पवित्र वेद मंत्रो की तरह दुहराने की जगह अपनी काल-परिस्थितियों तथा युद्धोत्तर कालीन योरप व् एशिया की तुलना में कहीं बहुत अधिक लोकतांत्रिक समाजों में जनता की चेतना के अनुरूप पुनर्व्याख्यायित करने का काम शुरू करना चाहिए. तभी हम भविष्य के लिए बुर्जुआ लोकतंत्र की तुलना में एक अधिक लोकतांत्रिक तथा जन-समावेशी व्यवस्था का स्वप्न निर्मित कर सकेंगे. मैं आज इस पर विस्तार से लिखना चाहता था...लेकिन जन्मदिन की स्नेहिल बधाइयों की भीड़ में खो जाने के डर से नहीं लिखा






रामजी तिवारी पूर्ण तो कुछ भी नहीं हो सकता , स्वतंत्रता भी नहीं ....राजनीति विज्ञानं में यह बहस काफी हुयी है ...वर्तमान लोकतंत्र की अवधारणा इसी स्वतंत्रता की बुनियाद पर है , जबकि समाजवादी व्यवस्थाए स्वतंत्रता से अधिक समानता और न्याय पर जोर देती रही हैं....बुर्जुवा लोकतंत्र में स्वतंत्रता इसलिए प्यारी होती है कि उसकी आड़ में यथास्थिति को बनाये रखा जाय , और समाज में शीर्ष लोगो के हासिल अधिकारों को वैधता प्रदान की जाए...और इस व्यवस्था में जहाँ नियंत्रण लगाया जाता है , वे ऐसी जगहें होती हैं , जिनसे उस यथास्थिति को चुनौती मिलती है | समाजवादी व्यवस्थाए समानता और न्याय की दुहाई देती है लेकिन स्वतंत्रता जैसा महत्वपूर्ण मूल्य हाशिए पर चला जाता है |कहना न होगा कि पिछली सदी के इतिहास में ऐसे उदहारण भरे पड़े है |.






मोहन श्रोत्रिय ‎"काम्य न होना, नाग़वार होना, कम्युनिस्ट गुलामी, कबीलाई गुलामी" आदि जो जुमले हैं, आशुतोष, ये सब न तो मेरी मूल प्रतिक्रिया में और न लेनिन की इस उक्ति में स्वावाभिक रूप से निहित हैं. ये जुमले "क्रांतिकारी" लगते हुए भी, इस उक्ति से स्वावाभिक रूप से निकाले जाने वाले निष्कर्ष भी नहीं हैं. एक ऐसा समाज जिसका सामंती ढांचा अभी पूरी तरह ध्वस्त नहीं हुआ है, कितनी हे तरह से "मुक़म्मल" आज़ादी का हनन करता है : खापों के फ़ैसलों, मज़हबी फ़तवों आदि का सिर्फ़ स्मरण करना तस्वीर को पूरी करने की दिशा में एक क़दम होगा. पूंजीवाद के पूरी तरह विकसित हुए बिना, एक उच्चतर अवस्था में पहुंच जाने से "दी जारही दिखती स्वतंत्रता" किस तरह एक विकृत एवं कंडीशंड चेतना के पल्लवित रूप में लेखन, मीडिया और फ़िल्मों में व्यक्त होती है इसका एक उदाहरण स्त्री द्वारा "देह-धन" को आज़ादी के प्रतिबिंबन के रूप में व्यक्त और स्थापित किए जाने का प्रयत्न और व्यवस्था द्वारा उसे प्रदान कि जारही वैधता पर ध्यान दें तो लेनिन की उक्ति क़रीब सौ साल पुरानी होने के बावजूद प्रासंगिक बन जाती है. पूंजीवादी सत्ता एक भ्रामक आज़ादी को वास्तविक बनाकर पेश करती है, और उसकी अनुमति भी प्रदान करती है. लेनिन की उक्ति को लेखक की आज़ादी के निषेध के रूप में नहीं, बल्कि जनता के व्यापक हिस्सों की बुनियादी आज़ादियों के हनन से जोड़े जाने की ज़रूरत के रूप में देखे जाने के रेखांकन को समझे बगैर यदि सिर्फ़ लेखक की आज़ादी के सवाल की तरह समझी जाएगी तो वह "लेखक" को एक "कृत्रिम विशिष्टता की आभा से मंडित करने की क़वायद" से अधिक कुछ नहीं होगी. आपने अपने स्टेटस में जब यह कहा कि भावनाएं तो सबकी आहत हो सकती हैं, हमारी भी, तो आप सही ही यह इशारा ही तो कर रहे थे कि कुछ लोगों/समूहों की भावनाओं को तरजीह दी जाती है, कुछेक दूसरों की नहीं. वर्ग समाज में लेखकीय दायित्वों अन्यत्र की गई लेनिन की टिप्पणियों की अनदेखी हम जैसे लोगों को तो नहीं ही करनी चाहिए, और मात्र एक संक्षिप्त टिप्पणी में वह सब नहीं खोजना चाहिए जो वहां नहीं है. अशोक को "बैन-विरोध" के ह्क़ के सुरक्षित रहते ही यह टिप्पणी सैद्धांतिक रूप से सही लगती है, और आप इस में कई तरह की "गुलामियों के बीज" यहां देखते हैं. जिसका ज़िक्र तक न हो वह नाग़वार गुजरने लगे तो फ़ैज़ याद आते हैं. फ़िलवक्त सिर्फ़ इतना कि कम से कम लेनिन पर लेखक को तरह-तरह की गुलामियों में धकेलने की तोहमत तो उनके घनघोर आलोचकों ने भी नहीं लगाईं,लेनिन के काल-क्रम को न भूलें, मित्र लोग ! और लेनिन को स्टालिन से गड्डमड्ड भी न करें. एक मूलतः दार्शनिक-सैद्धांतिक बहस के पटरी से उतर जाने की आशंका को भी ध्यान में रखने से, और विचारधारा की मूल सरणी से जुड़े रहकर बात को आगे बढ़ाने की ज़रूरत है.






अशोक कुमार पाण्डेयखाप पंचायतों के एक केस का अगर ज़िक्र करूँ तो वह व्यक्ति की चुनाव करने की स्वतंत्रता बनाम समूह की चयन की स्वतंत्रता का मामला है. इन दोनों में से हम व्यक्ति की स्वतंत्रता को ही वरीयता देंगे. तो उसमें हमारा स्टैंड 'व्यक्ति' की स्वतंत्रता पर ही है. सवाल लेखक की विशिष्टता का नहीं. एक समाज में लेखक तमाम दूसरे लोगों की ही तरह अपना मत रखता है. उसे इस मत की अभिव्यक्ति का हक क्यूँ नहीं होना चाहिए...तब भी जब वह व्यवस्था के खिलाफ कह रहा हो? क्या सिर्फ उसे साइबेरिया भेज कर ही क्रान्ति को बचाया जा सकता है?...इतिहास गवाह है कि बचाया तो तब भी नहीं जा सका. जनता के सही-गलत के निर्णय लेने की क्षमता पर इतना अविश्वास क्यूँ? क्या यही तर्क उन धर्मान्ध और धर्म भीरु सत्ता व्यवस्थाओं के नहीं? एक पूंजीवादी देश में लिख रहे सैकड़ों-हजारों वामपंथियों को लिखने की छूट मिले और एक 'क्रांतिकारी' देश में शासन के खिलाफ लिखने वाले को जेल, तो मैं उस 'क्रांतिकारिता' को अवश्य प्रश्नांकित करना चाहूँगा. मजेदार बात यह है कि आप (यानि वाम लेखक) एक बुर्जुआ व्यवस्था में अपने लिए तो पूरा अभिव्यक्ति का अधिकार चाहते हैं, लेकिन अपना शासन आ जाने पर अपने खिलाफ लिखने वालों की अभिव्यक्ति की आजादी उन्हें गलत लगती है! पूर्ण आजादी जैसी बात न होने का मतलब मेरे लिए बस यही है कि आपको गाँधी को गाली देने का अधिकार नहीं पर आलोचना का पूरा अधिकार है...यही लेनिन या किसी और के लिए भी सच होगा


और जब मैं विश्व युद्धोत्तर काल की बात कर रहा हूँ तो काल क्रम की लाक्षणिक अवस्था बिल्कुल स्पष्ट कर रहा हूँ.






मोहन श्रोत्रिय लेनिन के इस "पाठ" से आगे के कार्यभार तय करना एक बात है, संदर्भ विशेष का अतिक्रमण करके "more Marxist than Marx" (ये मार्क्स के ही शब्द हैं) बिल्कुल अलग चीज़ है. और इस लिहाज़ से बेहतर यह होगा कि अपने "मुक्त" चिंतन के आधार पर कार्य योजना बनाओ, क्योंकि ये स्फुट टीपें उसका हिस्सा भी बन पाएंगी, इसमें मुझे शक है. हम उस पर ही बहस करेंगे. दोहरी शक्ति व्यय करने से क्या लाभ.मार्क्स के परे जाकर भी वह विचार हो तो कोई हर्ज नहीं है.






आशुतोष कुमार लेनिन पर तोहमत कौन लगा रहा है , मोहन दा . मैंने पहले ही कहा कि चूंकि इन का कोट यहाँ अपने पूरे सन्दर्भ के साथ नहीं है , इस लिए खास उस पर बात करना सुविधाजनक नहीं है ....अभी क्लास के लिए निकलना है , इस लिए शाम को लौट कर बात को आगे बढाने की कोशिश करूँगा ....क्लास छोड़ कर विमर्श का रस लेने की 'आज़ादी' तो हम में से किसी को काम्य नहीं है .आजादी का अगर यह मतलब भी हो सकता हो , तो हम उस की बात नहीं कर रहे हैं






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